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अध्याय- 01 समष्टि- अर्थशास्त्र क्या है ?  (What is Macroeconomics ?) 

Main Focus of this Chapter

■ समष्टि अर्थशास्त्र का अर्थ

■ समष्टि- अर्थशास्त्र का क्षेत्र

■ समष्टि अर्थशास्त्र तथा व्यष्टि अर्थशास्त्र में अंतर

■  व्यष्टि अर्थशास्त्र समष्टि अर्थशास्त्र की परस्पर निर्भरता

■ समष्टि अर्थशास्त्र के चार प्रमुख क्षेत्र

■  पूँजीवादी अर्थव्यवस्था

  1. समष्टि- अर्थशास्त्र का अर्थ(Meaning of Macroeconomics) 

अर्थशास्त्र के अध्ययन को दो भागों में सबसे पहले ओस्लो विश्वविद्यालय (नार्वे) के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रेगनर फ्रिश (Ragnar Frisch) ने  सन् 1933 में बांटा था

(1) व्यष्टिअर्थशास्त्र (Microeconomics):-

इसमें व्यक्तिगत स्तर पर आर्थिक समस्याओं का अध्ययन किया जाता है; जैसे- एक उपभोक्ता की समस्या अथवा एक फर्म कीमत निर्धारण की समस्या का अध्ययन किया जाता है। इसे कीमत सिद्धांत भी कहा जाता है।

नव-परंपरावादी/ क्लासिकी अर्थशास्त्रियों; जैसे मार्शल, पीगू आदि ने व्यष्टि- अर्थशास्त्र (Microeconomics) के अध्ययन को अधिक महत्त्व दिया था।

(2) समष्टिअर्थशास्त्र (Macroeconomics):-

अंग्रेजी भाषा का Macro शब्द ग्रीक भाषा के मैक्रोस (Makros) से लिया गया है जिसका अर्थ है- ‘बड़ा’ (Large)।

अतएव समष्टि अर्थशास्त्र में आर्थिक समस्याओं का सारी अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से (अर्थार्थ सामूहिक स्तर पर) अध्ययन किया जाता है। जो कि समस्त अर्थव्यवस्था के स्तर पर आर्थिक प्रश्नों या आर्थिक समस्याओं का अध्ययन करती है। जैसे- बेरोजगारी की समस्या, मुद्रा-स्फीति की समस्या, मन्दी की समस्या ,सकल माँग, सकल पूर्ति, सामान्य कीमत स्तर, राष्ट्रीय आय इत्यादि । ये समष्टि आर्थिक चर (Macro Economic Variables) कहलाते हैं।

इसमें सामूहिक स्तर पर आर्थिक समस्याओं का अध्ययन किया जाता है; जैसे- सारी अर्थव्यवस्था के कुल उपभोग, कुल रोजगार, राष्ट्रीय आय आदि का अध्ययन किया जाता है। इसे ‘आय तथा रोजगार सिद्धांत’ भी कहा जाता है।

परंपरावादी/क्लासिकी अर्थशास्त्रियों; जैसे- एडम स्मिथ, माल्थस तथा रिकार्डो ने आर्थिक समस्याओं का अध्ययन सामूहिक दृष्टि से करने का प्रयत्न किया था। इस प्रकार ये अर्थशास्त्री समष्टि अर्थशास्त्र (Macroeconomics) के प्रेरक थे।

सन् 1930 की महामंदी (Great Depression of 1930) से पहले अधिकतर अर्थशास्त्री व्यष्टि अर्थशास्त्र के अध्ययन को ही महत्त्व देते रहे। परंतु सन् 1936 में जे० एम० केन्ज़ (J.M.Keynes) की पुस्तक, ‘The General Theory of Employment, Interest and Money‘ के प्रकाशन के बाद अर्थशास्त्रियों में समष्टि- अर्थशास्त्र (Macroeconomics) के अध्ययन का महत्त्व बढ़ गया।

आधुनिक काल में कई अर्थशास्त्रियों; जैसे हिक्स, हैन्सन, गार्डनर आदि ने समष्टि अर्थशास्त्र के विकास में बहुत सहयोग दिया।

परिभाषा ( Definition) 

  • शेपीरो के अनुसार, “समष्टि- अर्थशास्त्र सारी अर्थव्यवस्था के कार्यकरण से संबंधित है।” (Macroeconomics deals with the functioning of the economy as a whole.-Shapiro)
  • एम. एच. स्पेन्सर के शब्दों में, “समष्टि- अर्थशास्त्र का संबंध समस्त अर्थव्यवस्था अथवा उसके बड़े-बड़े हिस्सों से है। इसके अंतर्गत ऐसी समस्याओं का अध्ययन किया जाता है जैसे बेरोजगारी का स्तर, मुद्रा स्फीति की दर, राष्ट्र का कुल उत्पादन आदि, जिनका संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए महत्त्व होता है।” (Macroeconomics is concerned with the economy as a whole or large segments of it. In macroeconomics, attention is focused on such problems as the level of unemployment, the rate of inflation, the nation’s total output and other matters of economy-wide significance. -M.H. Spencer) 
  1. समष्टिअर्थशास्त्र का क्षेत्र(Scope of Macroeconomics) 

समष्टि-अर्थशास्त्र के क्षेत्र में निम्नलिखित विषयों का अध्ययन किया जाता है:

  1. राष्ट्रीय आय का सिद्धांत (Theory of National Income)
  2. रोज़गारका सिद्धांत (Theory of Employment)
  3. मुद्रा कासामान्य कीमत (Theory of Money)
  4. सामान्य कीमत स्तर का सिद्धांत (Theory of General Price Level)
  5. आर्थिक विकाससिद्धांतका सिद्धांत  (Theory of Economic Growth)
  6. अंतर्राष्ट्रीयव्यापार का सिद्धांत (Theory of International Trade)

(1) राष्ट्रीय आय का सिद्धांत (Theory of National Income):-

समष्टि- अर्थशास्त्र में राष्ट्रीय आय की धारणा, आय के विभिन्न तत्वों, आय के माप की विधियों तथा सामाजिक लेखांकनों (Social Accounting) का अध्ययन किया जाता है।

 (2) रोज़गार का सिद्धांत (Theory of Employment):-

समष्टि- अर्थशास्त्र में रोज़गार तथा बेरोज़गारी की समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। इसमें रोज़गार निर्धारण के विभिन्न तत्वों जैसे, प्रभावपूर्ण माँग, कुल पूर्ति, कुल उपभोग, कुल निवेश, कुल बचत, गुणक आदि का अध्ययन किया जाता है।

(3) मुद्रा का सिद्धांत (Theory of Money):-

रोज़गार के स्तर पर मुद्रा की माँग तथा पूर्ति में होने वाले परिवर्तनों का काफी प्रभाव पड़ता है। अतएव समष्टि-अर्थशास्त्र में मुद्रा के कार्यों तथा उससे संबंधित सिद्धांतों का अध्ययन किया जाता है। बैंकों तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं का भी अध्ययन किया जाता है।

(4) सामान्य कीमत स्तर का सिद्धांत (Theory of General Price Level):-

समष्टि- अर्थशास्त्र में सामान्य कीमत स्तर के निर्धारण तथा उसमें होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है। समष्टि अर्थशास्त्र में मुद्रा-स्फीति (Inflation) अर्थात कीमतों में होने वाली सामान्य वृद्धि तथा मुद्रा-अवस्फीति (Deflation) अर्थात कीमतों में होने वाली सामान्य कमी से संबंधित समस्याओं का भी अध्ययन किया जाता है।

(5) आर्थिक विकास का सिद्धांत (Theory of Economic Growth):-

समष्टि-अर्थशास्त्र में आर्थिक विकास अर्थात प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में होने वाली वृद्धि से संबंधित समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं के आर्थिक विकास का अध्ययन किया जाता है। सरकार की राजस्व तथा मौद्रिक नीतियों का अध्ययन भी किया जाता है।

(6) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का सिद्धांत (Theory of International Trade):-

समष्टि अर्थशास्त्र में विभिन्न देशों के बीच होने वाले व्यापार का भी अध्ययन किया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धांत, टैरिफ, संरक्षण आदि समस्याओं के अध्ययन का समष्टि- अर्थशास्त्र में काफी महत्त्व है।

  1. समष्टि अर्थशास्त्र तथा व्यष्टि अर्थशास्त्र में अंतर (Difference between Microeconomics and Macroeconomics) 

व्यष्टि- अर्थशास्त्र और समष्टि- अर्थशास्त्र में निम्नलिखित मुख्य अंतर पाया जाता है:

(1) अध्ययन का क्षेत्र (Scope of the Study):-

व्यष्टि- अर्थशास्त्र में व्यक्तिगत स्तर पर आर्थिक समस्याओं का अध्ययन किया जाता है जैसे  एक व्यक्ति, एक गृहस्थ, एक फर्म या एक उद्योग के स्तर पर दुर्लभता और चुनाव संबंधी समस्याओं का अध्ययन करता है। अर्थात यह अध्ययन करता है कि साधनों का उचित बंटवारा कैसे हो।

समष्टि- अर्थशास्त्र संपूर्ण अर्थव्यवस्था के स्तर पर दुर्लभता और चुनाव की समस्याओं का अध्ययन करता है। जैसे- बेरोजगारी की समस्या, मुद्रा-स्फीति की समस्या, मन्दी की समस्या ,सकल माँग, सकल पूर्ति, सामान्य कीमत स्तर,  अर्थात यह अध्ययन करता है कि साधनों को पूर्ण रोजगार कैसे प्राप्त हो।

उदाहरण (Illustration

व्यष्टि-अर्थशास्त्र निम्न समस्याओं का अध्ययन करता है:- उपभोक्ता का व्यवहार एवं संतुलन ।

इसके विपरीत समष्टि-अर्थशास्त्र निम्न समस्याओं का अध्ययन करता है: – अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी । सामान्य कीमत स्तर में वृद्धि की समस्या ( मुद्रा-स्फीति ) ।

(2) सामूहिकता की मात्रा (Degree of Aggregation):-

समष्टि- अर्थशास्त्र की तुलना में व्यष्टि अर्थशास्त्र में आर्थिक चरों की सामूहिकता की मात्रा सीमित होती है।

उदाहरण (Illustration) – व्यष्टि अर्थशास्त्र में एक उद्योग के संतुलन का अध्ययन किया जाता है। उद्योग किसी विशेष वस्तु का उत्पादन करने वाली सभी फर्मों का समूह है।

समष्टि अर्थशास्त्र में समस्त अर्थव्यवस्था के संतुलन का अध्ययन किया जाता है। समस्त अर्थव्यवस्था में सभी फर्मों एवं उद्योग शामिल होते हैं।

                                                                                 एक चेतावनी (A Caution) 

यह कहना गलत है कि व्यष्टि अर्थशास्त्र में कोई सामूहिकता नहीं होती । व्यष्टि अर्थशास्त्र में बाजार माँग का अध्ययन किया जाता है जो कि बाजार में किसी एक वस्तु के सभी क्रेताओं की माँग का समूह होता है। इसके विपरीत समष्टि अर्थशास्त्र में समस्त अर्थव्यवस्था में माँग का अध्ययन सकल माँग के रूप में किया जाता है। जो कि समस्त अर्थव्यवस्था में सभी वस्तुओं और सेवाओं की माँग का समूह होता है। इसलिए इन दोनों में केवल सामूहिकता की मात्रा में अंतर होता है।

(3) विभिन्न मान्यताएँ (Different Set of Assumptions ) :-

व्यष्टि एवं समष्टि अर्थशास्त्र की मान्यताएँ अलग-अलग होती हैं। कुछ चर (Variables) व्यष्टि- अर्थशास्त्र में स्थिर मान लिए जाते हैं। जबकि समष्टि अर्थशास्त्र में उन परिवर्तनशील माना जाता है। इसी प्रकार कुछ चर जो समष्टि अर्थशास्त्र में स्थिर माने जाते हैं उन्हें व्यष्टि अर्थशास्त्र में परिवर्तनशील माना जाता है।

उदाहरण (Illustration) :-व्यष्टि- अर्थशास्त्र में मान लिया जाता है कि कुल उत्पादन एवं रोजगार स्थिर हैं जबकि समष्टि अर्थशास्त्र में इन्हें परिवर्तनशील माना जाता है।

समष्टि-अर्थशास्त्र की यह मान्यता है कि उत्पादन एवं आय का वितरण स्थिर है जबकि व्यष्टि अर्थशास्त्र में इसे परिवर्तनशील माना जाता है। ‘अधिक बचत’ सदैव एक गुण नहीं है (‘Save More’ is not always a Virtue)

यदि एक व्यक्ति बचत करता है तो वह धनी हो जाता है, परंतु किसी अर्थव्यवस्था में यदि सब लोग अधिक बचत करेंगे तो वस्तुएँ व सेवाएँ कौन खरीदेगा। उत्पादक अधिक उत्पादन नहीं करेंगे। इससे देश के विकास एवं समृद्धि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

(4) केंद्रीय समस्या (Central Issue):-

व्यष्टि अर्थशास्त्र की केंद्रीय समस्या कीमत निर्धारण है। इसके विपरीत समष्टि-अर्थशास्त्र की मुख्य समस्या उत्पादन एवं रोजगार निर्धारण है।

(5) व्यष्टि-समष्टि विरोधाभास (Micro-Macro Paradox):-

व्यष्टि स्तर पर जो तथ्य तर्कपूर्ण एवं ठीक होते हैं वे समष्टि स्तर पर तर्कपूर्ण एवं ठीक नहीं होते।

उदाहरण (Illustration) 

यदि एक व्यक्ति बचत करता है तो इसके फलस्वरूप भविष्य में उसकी समृद्धि में वृद्धि होती है।

यदि किसी अर्थव्यवस्था में सभी व्यक्ति बचत करेंगे अर्थात् कम व्यय करेंगे तो वस्तुओं व सेवाओं की माँग कम हो जाएगी। इसके फलस्वरूप निवेश कम हो जायेगा तथा उत्पादन और रोजगार का स्तर भी कम हो जाएगा। अर्थव्यवस्था भविष्य में समृद्ध होने के स्थान पर निर्धन हो जाएगी।

(6) सरकारी हस्तक्षेप (Government Interference):-

व्यष्टि अर्थशास्त्र में सरकारी हस्तक्षेप एवं सार्वजनिक संस्थाओं का हस्तक्षेप कम होता है। इसके विपरीत समष्टि अर्थशास्त्र में सरकारी हस्तक्षेप तथा सार्वजनिक संस्थाओं का हस्तक्षेप अधिक होता है।

उदाहरण (Illustration) :-

व्यष्टि अर्थशास्त्र में सरकार निम्न में हस्तक्षेप नहीं करती:-

(i) उपभोक्ता की आर्थिक क्रियाएँ।

(ii) पूर्ण प्रतियोगी बाजार में कीमत निर्धारण।

समष्टि अर्थशास्त्र में सरकार निम्न में हस्तक्षेप करती है:-

(i) उपभोक्ताओं के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, जलापूर्ति आदि की व्यवस्था ।

(ii) सभी उत्पादकों के लिए सड़कें, बिजली, सुरक्षा आदि की व्यवस्था ।

4.व्यष्टि अर्थशास्त्र समष्टि अर्थशास्त्र कि परस्परनिर्भरता  (Interdependence between Microeconomics-Macroeconomics) 

व्यष्टि-अर्थशास्त्र तथा समष्टि- अर्थशास्त्र अध्ययन के दो स्वतंत्र क्षेत्र नहीं हैं वरन् वे परस्पर-निर्भर (Interdependent) क्षेत्र हैं। व्यष्टि अर्थशास्त्र समष्टि- अर्थशास्त्र पर निर्भर है (Microeconomics Depends upon Macroeconomics): क्योंकि व्यष्टि-अर्थशास्त्र के सिद्धांत ‘अन्य बातें समान रहें’ (Other things being equal) की मान्यता पर आधारित है। यह मान्यता व्यष्टि-अर्थशास्त्र पर समष्टि अर्थशास्त्र के प्रभाव को प्रकट करती है। व्यष्टि अर्थशास्त्र समष्टि- अर्थशास्त्र पर निर्भर हैं। क्योंकि संपूर्ण अर्थव्यवस्था विभिन्न व्यक्तिगत आर्थिक इकाइयों का जोड़ है, इसलिए समस्त अर्थव्यवस्था के कार्यों को समझने के लिए व्यक्तिगत आर्थिक इकाइयों के व्यवहार को समझना आवश्यक है।

उदाहरण (Illustration

एक विशेष उद्योग में ब्याज की दर समस्त अर्थव्यवस्था में प्रचलित ब्याज की दर द्वारा प्रभावित होगी। इसी प्रकार एक उद्योग में निवेश समस्त अर्थव्यवस्था में निवेश और आय के स्तर पर निर्भर करेगा।

समष्टि- अर्थशास्त्र व्यष्टि अर्थशास्त्र पर निर्भर करता है (Macroeconomics Depends upon Microeconomics): निम्नलिखित उदाहरणों से ज्ञात होता है कि समष्टि अर्थशास्त्र के चर किस प्रकार अर्थव्यवस्था में व्यष्टि अर्थशास्त्र के चरों के स्तर एवं व्यवहार पर निर्भर करते हैं।

उदाहरण (Illustration)

अर्थव्यवस्था में सकल माँग व्यष्टि स्तर पर की गई कुल माँग का जोड़ है। अथवा, यह अर्थव्यवस्था में सभी वस्तुओं और सेवाओं की कुल माँग का जोड़ है।

AD =  Σd;

[यहाँ, AD = सकल माँग; d = माँग; i = विभिन्न वस्तुएँ एवं सेवाएँ । ]

राष्ट्रीय आय व्यष्टि स्तर पर साधन आय का जोड़ है अथवा यह किसी देश के सभी सामान्य निवासियों की साधन आय का जोड़ है।

NY =  ΣYn

[यहाँ, NY = राष्ट्रीय आय; Y = आय; n = देश के सामान्य निवासी ।]

5. समष्टि अर्थशास्त्र के चार प्रमुख क्षेत्र(Four Major Sectors of Macroeconomics) 

अध्ययन की प्रकृति की दृष्टि से एक अर्थव्यवस्था का कई क्षेत्रों में वर्गीकरण किया जा सकता है। विस्तृत रूप से अर्थव्यवस्था को चार क्षेत्रों में वर्गीकृत किया जाता है।

(1) उत्पादक क्षेत्र (Producer Sector):-

उत्पादक क्षेत्र वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करता है। यह क्षेत्र गृहस्थ/परिवार क्षेत्र से उत्पादन के कारकों (श्रम, भूमि, पूँजी तथा उद्यम) को खरीदता / भाड़े पर लेता है। यह क्षेत्र गैर-कारक आगतों (कच्चा माल आदि) के साथ कारक आगतों का प्रयोग करके वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन करता है और मानवीय आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के लिए वस्तुओं तथा सेवाओं को गृहस्थ क्षेत्र को बेचता है।

(2) गृहस्थ क्षेत्र (Household Sector):-

गृहस्थ क्षेत्र वस्तुओं एवं सेवाओं का उपभोग करता है। यह क्षेत्र उत्पादन के कारकों का स्वामी होता है। यह क्षेत्र इन कारक सेवाओं को उत्पादक क्षेत्र को प्रदान करके वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन में अपना योगदान देता है और कारक सेवाओं के बदले में प्राप्त आय से वस्तुओं तथा सेवाओं को खरीदता है।

(3) सरकारी क्षेत्र (Government Sector):-

यह क्षेत्र कराधान (Taxation) एवं आर्थिक सहायता (Subsidies) आदि से संबंधित कार्य करता है। सरकारी क्षेत्र गृहस्थ क्षेत्र से प्रत्यक्ष कर और उत्पादक क्षेत्र से अप्रत्यक्ष कर तथा निगम कर के रूप में आय प्राप्त करता है। यह क्षेत्र गृहस्थ क्षेत्र को वृद्धावस्था पेंशन, वजीफे आदि के रूप में तथा उत्पादक क्षेत्र को आर्थिक सहायता भी देता है।

(4) शेष विश्व क्षेत्र (Rest of the World Sector):-

यह क्षेत्र निर्यात और आयात करता है। एक देश द्वारा दूसरे देश को वस्तुएँ तथा सेवाएँ बेचना निर्यात कहलाता है। जबकि आयात में एक देश द्वारा दूसरे देश से वस्तुएँ तथा सेवाएँ खरीदना शामिल है।

6.पूँजीवादी अर्थव्यवस्था(Capitalist Economy) 

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से अभिप्राय उस अर्थव्यवस्था से हैं जिसमें आर्थिक क्रियाओं को बाजार शक्तियों (Market Forces) की स्वतंत्र अंतर्क्रिया पर छोड़ दिया जाता हैं। उत्पादक उन वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन करने में स्वतंत्र हैं जिनकी माँग अधिक है, ताकि वे अपने लाभों को अधिकतम कर सकें। इसी भाँति उपभोक्ता भी, अपने चयन एवं रुचि के अनुरूप, वस्तुओं एवं सेवाओं को खरीदने में स्वतंत्र हैं, ताकि वे अपनी संतुष्टि को अधिकतम कर सकें। क्या और कितना उत्पादन करना है तथा क्या और कितना उपभोग करना है, इस संबंध में सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं है।

पूँजीवाद के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं:-

(1) निजी संपत्ति (Private Property):-

इस अर्थव्यवस्था में लोगों को निजी संपत्ति रखने तथा उसको अपनी इच्छानुसार प्रयोग करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त होता है। सरकार लोगों के इस अधिकार की रक्षा करती है। उत्पादन के सभी साधन जैसे-मशीनें, औजार, भूमि, खानें आदि निजी स्वामित्व के अधीन होते हैं। पूँजीपतियों को किसी भी सीमा तक पूँजी रखने तथा उसे बढ़ाने की स्वतंत्रता होती है। उन्हें किसी भी प्रकार की संपत्ति खरीदने तथा बेचने की स्वतंत्रता होती है। उन्हें संपत्ति के संबंध में इकरार (Contract) करने की स्वतंत्रता होती है। किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति उसके उतराधिकारियों को मिल जाती है, परंतु लोगों को अपनी निजी संपत्ति का प्रयोग पूर्ण स्वतंत्रता से न करके सरकारी नियमों व कानून के अधीन करना होता है। पूँजीवाद में ऐसी संपत्ति भी होती है जिन पर सरकार अथवा सारे समाज का अधिकार होता है जैसे-सड़कें, रेलें, पार्क, विश्वविद्यालय, अस्पताल, पुस्तकालय आदि ।

(2) कीमत संयंत्र (Price Mechanism):-

इस अर्थव्यवस्था में कीमत संयंत्र ही उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं का मार्गदर्शन करती है। कीमत संयंत्र से अभिप्राय यह है कि कीमत बिना बाहरी हस्तक्षेप के माँग और पूर्ति की शक्तियों द्वारा तय होती है। इस संयंत्र द्वारा उत्पादकों को यह निर्णय करने में सहायता मिलती है कि वे कौन-कौन सी वस्तुएँ व सेवाएँ, कितनी – कितनी मात्रा में, किस-किस समय तथा कहाँ-कहाँ पैदा करें। कीमत संयंत्र द्वारा ही इस अर्थव्यवस्था में माँग और पूर्ति के संचालन एवं समन्वय (Adjustment) लाया जाता है। सारी आर्थिक क्रियाएँ उपभोग, उत्पादन, विनिमय, वितरण, निवेश तथा बचत कीमत संयंत्र के निर्देश पर चलती हैं।

(3) उद्यम की स्वतंत्रता (Freedom of Enterprise):

प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता होती है कि वह अपने उत्पादन के साधनों को इच्छानुसार जिस काम धन्धे में चाहे लगा सकता है, जहाँ वह चाहे, जिस प्रकार और आकार का उद्योग चालू कर सकता है। अन्य शब्दों में क्या, कहाँ और कितना पैदा करना है के संबंध में, उद्यमी स्वतंत्रतापूर्वक निर्णय ले सकता है। अत: उद्यमी को यह स्वतंत्रता है कि वह अपनी योग्यता, कार्यक्षमता, शिक्षा, साधन तथा अभ्यास के आधार पर जो व्यापार व रोजगार चाहे चुन सकता है। उद्यमी उन वस्तुओं का उत्पादन करेंगे जिनके उत्पादन से उन्हें अधिकतम लाभ होगा।

(4) प्रतियोगिता तथा सहयोग (Competition and Co-operation):-

इस अर्थव्यवस्था में उद्यम की स्वतंत्रता होने के कारण प्रायः प्रत्येक वस्तु के उत्पादकों की बहुत अधिक संख्या होती है। इनमें उन वस्तुओं के बेचने के लिये प्रतियोगिता होती रहती है। क्रेताओं में भी किसी वस्तु के खरीदने के लिये प्रतिस्पर्धा रहती है। मजदूरों में भी किसी नौकरी को प्राप्त करने में प्रतिस्पर्धा रहती है। ये ही श्रमिक एक-दूसरे से मिलकर तथा मशीनों के सहयोग से काम करते हैं। इस प्रकार प्रतियोगिता और सहयोग दोनों साथ-साथ चलते हैं।

(5) लाभ प्रेरणा (Profit Motive):-

इस अर्थव्यवस्था में लाभ कमाने की इच्छा ही आर्थिक क्रिया करने की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण प्रेरणा है। ऐसी अर्थव्यवस्था में कोई भी कार्य लाभ के बिना नहीं किया जाता। सभी उद्यमी ऐसे उद्योग-धंधे चलाते हैं जिनमें अधिक लाभ मिलने की आशा हो। अतएव पूँजीवाद में उत्पादन मुख्य रूप से लाभ प्राप्त करने के लिये किया जाता है।

(6) उपभोक्ता की प्रभुसत्ता (Sovereignty of the Consumer):

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता की प्रभुसत्ता का विशेष स्थान होता है। सारा उत्पादक ढांचा उपभोक्ताओं की इच्छाओं एवं माँग पर आधारित रहता है। अतः उद्यमी केवल उन्हीं वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन में निवेश करेंगे जिनकी उपभोक्ता माँग करते हैं अर्थात जिनके लिये उपभोक्ता अधिक कीमत देने को तैयार हैं। उपभोक्ता उन वस्तुओं का उपभोग करते हैं जिनसे उन्हें अधिकतम संतुष्टि प्राप्त हो । उपभोक्ता को इस बात की भी स्वतंत्रता होती है कि वह अपनी कितनी आय उपभोग पर व्यय करे तथा कितनी आय को भविष्य के लिये बचा कर रखे।

(7) श्रमिक का वस्तु के रूप में प्रयोग (Labour as a Commodity):-

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में अन्य वस्तुओं की भांति श्रम का भी बाजार होता है। यहां पर श्रम खरीदा व बेचा जाता है। इसका मूल कारण यह होता है कि उत्पादन के साधनों से वंचित जनसंख्या अपनी श्रम शक्ति का स्वयं प्रयोग करने में असहाय होती है। इसलिये जीवन निर्वाह के लिये उसे अपना श्रम बेचना पड़ता है।

(8) सरकारी हस्तक्षेप नहीं होता (No Government Interference):-

पूँजीवाद में सरकार आर्थिक क्रियाओं में कोई हस्तक्षेप नहीं करती। उत्पादक तथा उपभोक्ता अपने-अपने निर्णय लेने में स्वतंत्र होते हैं। सरकार का कार्य देश में कानून व्यवस्था बनाये रखना तथा बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करना होता है।

(9) स्वहित (Self- Interest):

पूँजीवाद की मुख्य प्रेरक शक्ति स्वहित की संतुष्टि है। स्वहित से अभिप्राय उस इच्छा से है जिसके फलस्वरूप श्रमिक तथा व्यापारी अधिक मौद्रिक आय प्राप्त करना चाहते हैं तथा उपभोक्ता अधिकतम संतुष्टि प्राप्त करना चाहता है। इस समाज के सभी सदस्यों को विवेकशील (Rational) माना जाता है।

 पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के गुण निम्नलिखित है: 

(1) वस्तुओं सेवाओं में विविधता (Diversity in Goods and Services):

इस अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा गुण यह है कि उपभोक्ताओं की रुचि के अनुसार यहाँ विभिन्न प्रकार की वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन किया जाता है।

(2) साधनों का उचित उपयोग (Proper use of Resources):-

पूँजीवाद में उत्पादन केवल लाभ के दृष्टिकोण से किया जाता है। इसलिये इस अर्थव्यवस्था में जो भी साधन उपलब्ध होते हैं, उनका कुशलतम प्रयोग किया जाता है तथा अपव्यय नहीं होने दिया जाता।

(3) काम की प्रेरणा (Inspiration of Work):

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को काम करने की बहुत अधिक प्रेरणा प्राप्त होती है। निजी संपत्ति के स्वामित्व तथा उत्तराधिकार के नियमों के कारण लोगों में अधिक आय प्राप्त करने तथा संचय करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। इसके फलस्वरूप इन अर्थव्यवस्थाओं से राष्ट्रीय आय में काफी वृद्धि होती है।

(4) जीवन स्तर में वृद्धि (Rise in Living Standard):-

वस्तुओं और पदार्थों में विविधता (Variety) होने के कारण, कई वस्तुओं का बड़े पैमाने पर उत्पादन काफी सस्ता होता है और उन्हें कम कीमत पर बेचा जाता है। इससे निर्धन जनता के जीवन-स्तर में भी वृद्धि होती है। दूसरी ओर ऊंची आय वाला वर्ग बढ़िया तथा अधिक कीमतों पर मिलने वाले पदार्थों को खरीदकर अपना जीवन स्तर ऊंचा उठाने का प्रयास करता है।

(5) लोचशीलता (Flexibility):-

इस अर्थव्यवस्था का एक गुण यह भी है कि यह लोचशील है। यह समय के अनुसार अपने आपको हर ढांचे में ढाल लेती है।

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के मुख्य दोष निम्नलिखित हैं:- 

(1) आय तथा धन का असमान वितरण (Unequal Distribution of Income and Wealth):-

इस अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा दोष धन और आय के वितरण में असमानता का होना है। यह असमानता निजी संपत्ति, स्वतंत्र प्रतियोगिता, अत्यधिक लाभ की आकांक्षा आदि के कारण उत्पन्न होती है। ये तत्त्व धनी को और धनी, निर्धन को और अधिक निर्धन बनाते चले जाते हैं।

(2) वर्ग संघर्ष (Class Conflicts):

आय तथा धन के असमान वितरण के फलस्वरूप इस अर्थव्यवस्था में समाज प्रायः वर्गों में बंट जाता है। एक ओर धनी वर्ग अथवा पूँजीपति तो विलासिता पूर्ण जीवन बिताते हैं, तथा दूसरी ओर श्रमिक को भर पेट खाना भी उपलब्ध नहीं होता।

(3) श्रमिकों का शोषण (Exploitation of Workers):-

श्रमिकों का शोषण किसी भी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का प्रतिरूप कहा जा सकता है।

(4) अपव्ययपूर्ण प्रतियोगिता (Mis-spending Competition):-

प्रतियोगिता जो इस अर्थव्यवस्था का एक मुख्य लक्षण है, वास्तविक रूप में अपव्ययपूर्ण है।

(5) समन्वय की कमी (Lack of Coordination):-

इस अर्थव्यवस्था में सहयोग और संगठन के अभाव के कारण उत्पादकों के कार्यों में किसी भी प्रकार का समन्वय नहीं होता ।

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