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अध्याय-10 पूर्ण प्रतियोगिता तथा लाभ अधिकतमीकरण 
Producer’s Equilibrium Under Perfect Competition) 
              अथवा 
पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादक का संतुलन
(Perfect Competition and Profit Maximisation 

बाजार का एक महत्त्वपूर्ण स्वरूप

■ पूर्ण प्रतियोगिता की शर्तें / विशेषताएँ अधिकतम लाभ

■उत्पादक का मुख्य उद्देश्य एवं उसके संतुलन की स्थिति

■ पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादक का संतुलन – अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन परिस्थितियाँ

1.पूर्ण प्रतियोगिताबाजार का एक महत्त्वपूर्ण स्वरूप

(Perfect Competition-An Important Form of the Market) 

यह बाजार की वह स्थिति है, जिसमें एक वस्तु के अनेकों प्रतियोगी हैं और किसी भी एक प्रतियोगी का वस्तु की कीमत पर कोई नियंत्रण नहीं होता । वस्तु की कीमत क्या होगी, यह बाजार में वस्तु की माँग एवं पूर्ति पर निर्भर करता है। बाजार में अनेक उपभोक्ता होते हैं। वे एक वस्तु को बाजार में प्रचलित कीमत पर कहीं से भी खरीद सकते हैं। बाजार की ऐसी परिस्थिति का कोई ठोस उदाहरण नहीं मिलता। फिर भी, हम कह सकते हैं कि बाजार में हम गेहूँ व अन्य अनाज प्रचलित कीमत पर खरीद सकते हैं और इस कीमत पर किसी एक उत्पादक का कोई नियंत्रण नहीं होता । अनाज की कीमत प्रायः माँग एवं पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है ।

अर्थशास्त्री पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति को बाजार की एक आदर्श (Ideal) स्थिति के रूप में लेते हैं, भले ही इसका कोई ठोस उदाहरण न हो।

2.पूर्ण प्रतियोगिता की शर्तें / विशेषताओ की व्याख्या किजिए

 (Conditions/Features of Perfect Competition) 

पूर्ण प्रतियोगिता की मुख्य शर्तें/विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

(1) फर्मों या विक्रेताओं की अधिक संख्या (Large Number of Firms or Sellers):

किसी वस्तु को बेचने वाले विक्रेताओं की संख्या इतनी अधिक होती है कि किसी एक फर्म द्वारा पूर्ति में की जाने वाली वृद्धि या कमी का बाजार की कुल पूर्ति पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ता है। अतएव कोई अकेली फर्म वस्तु की कीमत को प्रभावित नहीं कर सकती। इसलिये यह कहा जाता है कि पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म कीमत स्वीकारक है (Price Taker)। अर्थात उसे बाजार में प्रचलित कीमत पर अपना उत्पादन बेचना पड़ता है।

(2) क्रेताओं की अधिक संख्या (Large Number of Buyers):

क्रेताओं की संख्या भी बहुत अधिक होती है। इसलिये कोई एक क्रेता भी विक्रेता की तरह वस्तु की कीमत को प्रभावित करने के योग्य नहीं होता। उसकी माँग में होने वाली वृद्धि या कमी का बाजार माँग पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ता है। इसलिए क्रेता भी कीमत स्वीकारक होता है।

(3) एक समान या समरूप वस्तुएँ (Homogeneous Products):-

पूर्ण प्रतियोगिता की दूसरी शर्त यह है कि सभी विक्रेता एक सी इकाइयाँ ही बेचते हैं। उनमें रूप, रंग, गुण या किस्म में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होता। सभी वस्तुएँ समरूप होती हैं। इससे एक महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि क्रेताओं द्वारा एक विक्रेता के उत्पादन की तुलना में दूसरे विक्रेता के उत्पादन को अधिक पसंद करने का कोई कारण नहीं होता। इसलिये समस्त बाजार में एक वस्तु की एक ही कीमत होगी । समरूप वस्तु की एक समान कीमत पर बिक्री करने के फलस्वरूप उसके विज्ञापन आदि पर कोई खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती अर्थात पूर्ण प्रतियोगी बाजार में कोई बिक्री लागत खर्च नहीं करनी पड़ती।

(4) पूर्ण ज्ञान ( Perfect Knowledge):

क्रेताओं और विक्रेताओं को कीमत की पूरी – पूरी जानकारी होती है। क्रेताओं को इस बात का पूर्ण ज्ञान होता है कि भिन्न-भिन्न विक्रेता वस्तु को किस कीमत पर बेच रहे हैं। ऐसे ज्ञान और सजगता के फलस्वरूप बाजार में वस्तु की एक ही कीमत पाई जाती है।

(5) फर्मों का स्वतंत्र प्रवेश छोड़ना (Free Entry and Exit of Firms) :

पूर्ण प्रतियोगिता की अवस्था में किसी उद्योग में कोई भी फर्म प्रवेश कर सकती है अथवा पुरानी फर्म उस उद्योग को छोड़ सकती है। फर्मों के प्रवेश पर किसी प्रकार का कानूनी प्रतिबंध नहीं होता।

(6) स्वतंत्र निर्णय या प्रतिबंधों का अभाव (Independent Decision Making and Free from Checks):

क्रेताओं और विक्रेताओं में किसी वस्तु के उत्पादन, उसकी मात्रा और कीमत संबंधी कोई समझौता नहीं होता । किसी वस्तु के क्रय तथा विक्रय के संबंध में कोई प्रतिबंध नहीं होता ।

(7) पूर्ण गतिशीलता ( Perfect Mobility):

पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु बाजार तथा साधन बाजार में पूर्ण गतिशीलता पाई जाती है। उत्पादन के साधन पूर्णतया गतिशील होते हैं। एक क्रेता उसी फर्म से वस्तुएँ खरीदेगा जहाँ वे सस्ती मिलेंगी तथा एक साधन वहीं अपनी सेवाएं बेचेगा जहाँ उसे अधिक कीमत मिलेगी।

(8) अतिरिक्त यातायात लागत का अभाव (No Extra Transport Cost) :

पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में बाजार के विभिन्न क्षेत्रों में वस्तु को भेजने के लिए कोई यातायात लागत नहीं खर्च करनी पड़ती। इसी दशा में किसी वस्तु की पूरे बाजार में एक ही कीमत प्रचलित हो सकती है। फर्म केवल अपने उत्पादन की मात्रा निर्धारित कर सकती है।

(9) समान औसत आगम तथा सीमांत आगम (Same Average and Marginal Revenue):

पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु की औसत आगम अर्थात कीमत तथा सीमांत आगम बराबर रहती है। पूर्ण प्रतियोगिता में जैसा कि चित्र 1 से प्रकट होता है DD वक्र सीमांत आगम तथा औसत आगम दोनों को प्रकट कर रही है। किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई बेचने से कुल आगम में जो अंतर आता है उसे सीमांत आगम कहते हैं। चित्र 1 से ज्ञात होता है कि यदि वस्तु की एक इकाई बेची जाती है तो कीमत (AR) ₹ 5 है। यदि माँग बढ़कर दो या तीन इकाई हो जाए तो भी कीमत ₹ 5 ही रहेगी। अतएव सीमांत आगम (MR) भी ₹5 ही रहेगी।

Figure-1 -Revenue Curves Under Perfect Competition

पूर्ण प्रतियोगिता के अंतर्गत फर्म की कीमत रेखा या संप्राप्ति वक्र एक क्षैतिज सरल रेखा होती है। AR और MR एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं। यह इसलिए क्योंकि पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म कीमत स्वीकारक होती है। दी हुई कीमत पर यह उत्पाद की कितनी भी मात्रा बेच सकती है।

3.अधिकतम लाभउत्पादक का मुख्य उद्देश्य एवं उसके संतुलन की स्थिति

(Profit Maximisation-Principal Objective of Producer and a Situation of his Equilibrium)

आगम या संप्राप्ति (Revenue) :एक उत्पादक वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन इसलिए करता है जिससे कि उनकी बिक्री द्वारा उसे लाभ प्राप्त हो सके।

एक उत्पादक को अपने उत्पादन अर्थात वस्तुओं और सेवाओं की बिक्री से जो विक्रय मूल्य प्राप्त होता है उसे आगम या संप्राप्ति (Revenue) कहते हैं।

कुल आगम (Total Revenue) :-एक उत्पादक द्वारा अपने उत्पादन की निश्चित मात्रा को बेचकर जो धन प्राप्त होता है उसे कुल आगम (Total Revenue) कहते हैं।

लागत (Cost ):-एक उत्पादक को वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करने के लिए उत्पादन के साधनों की सेवा तथा अन्य आगतों को प्राप्त करने के लिए जो मौद्रिक राशि या धन खर्च करना पड़ता है उसे उत्पादन लागत (Cost of Production) कहते हैं।

कुल लागत (Total Cost):-किसी वस्तु की एक निश्चित मात्रा का उत्पादन करने के लिए जो कुल धन व्यय करना पड़ता है उसे कुल लागत (Total Cost) कहते हैं ।

मान लीजिए, एक उत्पादक को 500 कॉपियों की बिक्री द्वारा कुल ₹2,500 प्राप्त होते हैं तो 500 कॉपियों का कुल आगम ₹2,500 होगा। इसके विपरीत, उदाहरण के लिए, 500 कॉपियों का उत्पादन करने के लिए यदि कुल ₹2,000 खर्च करना पड़ता है तो 500 कॉपियों की कुल लागत ₹2,000 होगी।

लाभ (Profit) :-यदि एक उत्पादक को प्राप्त होने वाले कुल आगम (Total Revenue) उसके द्वारा खर्च की गई कुल लागत (Total Cost) से अधिक हैं तो कुल आगम तथा कुल लागत के अंतर को लाभ (Profit) कहा जाएगा।

लाभ (𝝅) = कुल आगम (TR) – कुल लागत (TC) 

उपरोक्त उदाहरण में उत्पादक के कुल आगम ₹ 2,500 हैं तथा कुल लागत ₹2,000 है तो उत्पादक को ₹ 2,500 – ₹ 2,000 = ₹ 500 लाभ होगा।

हानि (Loss) :- उत्पादक द्वारा किसी वस्तु के उत्पादन पर खर्च की गई कुल लागत (Total Cost) उस वस्तु की बिक्री से प्राप्त कुल आगम (Total Revenue) से अधिक है तो उत्पादक को हानि होगी ।

हानि (Loss) = कुल लागत (TC) – कुल आगम (TR) 

संतुलन:- एक उत्पादक उस समय संतुलन की स्थिति में होता है जब उसे अपने वर्तमान उत्पादन की मात्रा से संतुष्टि होती है । उत्पादन में कमी करने की या वृद्धि करने की उसमें कोई प्रवृत्ति नहीं पाई जाती है। यह अवस्था उस समय होगी जब उत्पादक को अधिकतम लाभ प्राप्त होंगे।

  • हैन्सन के अनुसार, “एक उत्पादक उस समय संतुलन में होगा जब उत्पादन में कमी करना या वृद्धि करना लाभदायक नहीं होगा । ” ( A producer will be in equilibrium when it is of no advantage to increase or decrease his output. — Hanson)
  • कौत्तसुवियानी के शब्दों में, “एक उत्पादक उस समय संतुलन में होगा जब उसके लाभ अधिकतम होंगे। ” (A producer is in equilibrium when he maximises his profits. -Koutsoyiannis)
  • मैकोनल के शब्दों में, “अल्पकाल में एक फर्म उस समय संतुलन में होती है, जब उस मात्रा का उत्पादन करती है जिस पर उसके लाभ अधिकतम होते हैं तथा हानियां न्यूनतम होती हैं । ” ( In the short-run the producer will be in equilibrium when he produces that output at which he maximises profit or minimises loss. -McConnell)

4.पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादक का संतुलनअल्पकालीन एवं दीर्घकालीन परिस्थितियाँ

(Producer’s Equilibrium under Perfect Competition- Short Period and Long Period Situations) 

विषय के इस भाग में हम उत्पादक के संतुलन का अध्ययन करेंगे । अध्ययन इस कल्पना पर आधारित होगा कि बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता की परिस्थिति हैं, तथा किसी एक फर्म का बाजार कीमत पर कोई नियंत्रण नहीं है । अध्ययन समय की दो अवधियों के परिप्रेक्ष्य में किया जाएगा – अल्पकाल एवं दीर्घकाल ।

4.1 उत्पादक का अल्पकालीन संतुलन (Short Run Equilibrium of the Producer) 

अल्पकाल में एक प्रतियोगी फर्म का प्लांट स्थिर होता है। वह परिवर्तनशील साधनों में परिवर्तन करके उत्पादन में इस प्रकार का परिवर्तन करने का प्रयत्न करती है कि उसको लाभ अधिकतम या हानि न्यूनतम हो जाये । इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए फर्म निम्नलिखित दो विधियों में किसी भी एक विधि का प्रयोग कर सकती है।

उत्पादक के अल्पकालीन संतुलन की कुल आगम (TR) तथा कुल लागत (TC) विधि की व्याख्या कीजिए। 

(Total Revenue and Total Cost Approach) 

अल्पकाल में एक फर्म उत्पादन की उस मात्रा का उत्पादन करेगी जिस पर उसके लाभ अधिकतम होंगे तथा हानि न्यूनतम होगी । इन दोनों स्थितियों का वर्णन निम्नलिखित ढंग से किया जा सकता है:

(i) अधिकतम लाभ (Maximum Profit):- 

एक फर्म संतुलन की स्थिति में उस समय होती है जब उसे अधिकतम कुल लाभ प्राप्त हो रहे हैं। एक फर्म के कुल लाभ का अनुमान कुल आगम में से कुल लागत को घटाकर लगाया जा सकता है। अतएव

Profit (𝝅)  = TR – TC 

(यहाँ, TR = कुल लाभ, TR = कुल आगम, TC = कुल लागत ।)

एक फर्म उस समय संतुलन में होती है जब वह किसी वस्तु की उस मात्रा का उत्पादन कर रही होती है जिस पर कुल आगम तथा कुल लागत का अंतर अर्थात कुल लाभ अधिकतम होते हैं। इस स्थिति को चित्र 2 की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है।

Figure-2

OM मात्रा के उत्पादन स्तर पर संतुलन प्राप्त होता है। इस स्थिति में अधिकतम लाभ =RS

चित्र 2 में OX- अक्ष पर वस्तु की मात्रा तथा OY – अक्ष पर लागत आगम तथा लाभ प्रकट किये गये हैं। TR कुल आगम वक्र है। यह वक्र एक सीधी रेखा है जो प्रारंभिक बिंदु 0 से 45° के कोण पर ऊपर की ओर उठ रही है। इससे सिद्ध होता है कि वस्तु की कीमत स्थिर है। यह स्थिति पूर्ण प्रतियोगिता में संभव होती है। TC कुल लागत वक्र है। TPC वक्र कुल लाभ वक्र है।

(i) (TC > TR):- जब फर्म OM1 से कम उत्पादन करती है तो उसको हानि उठानी पड़ती है क्योंकि O से M1 तक TC वक्र TR वक्र के ऊपर है। अर्थात कुल लागत, कुल आगम से अधिक (TC > TR) है।

(ii)(TR = TC):- यदि फर्म OM, मात्रा का उत्पादन करती है तो फर्म की हानि शून्य हो जायेगी तथा उसके कुल लाभ भी शून्य होंगे क्योंकि इस स्थिति में कुल आगम तथा कुल लागत बराबर (TR = TC) हैं। अर्थशास्त्र की भाषा में बिंदु A को जहाँ पर फर्म के कुल लाभ शून्य हैं तथा हानि भी शून्य है, समविच्छेद बिंदु (Break-even Point) कहा जाता है क्योंकि इस बिंदु पर लाभ तथा हानि दोनों शून्य हैं।

(iii)(TR >TC):- M1 से M2 तक उत्पादन के सभी स्तरों पर भी फर्म को लाभ प्राप्त हो रहे हैं क्योंकि इस स्थिति में कुल आगम, कुल लागत से अधिक (TR >TC) है। बिंदु ‘B’ के बाद TC वक्र TR वक्र से ऊपर है।

चित्र 2 से पता चलता है कि जब फर्म OM मात्रा का उत्पादन कर रही है तो TR तथा TC का अंतर RS अधिकतम है | TPC वक्र से ज्ञात होता है कि उत्पादन की OM मात्रा पर फर्म को अधिकतम लाभ मिल रहे हैं क्योंकि उत्पादन की OM मात्रा के पश्चात TPC वक्र नीचे की ओर गिरने लगती है। OM मात्रा पर कुल लाभ अधिकतम है। अतः इस मात्रा का उत्पादन करने पर फर्म संतुलन की स्थिति में होगी।

(ii) न्यूनतम हानि (Minimum Loss):-

चित्र 3 में न्यूनतम हानि की स्थिति को प्रकट किया गया है। TC कुल लागत वक्र है तथा TVC परिवर्तनशील लागत वक्र है। TR कुल आगम वक्र है। TR वक्र TVC वक्र को बिंदु B पर छू रही है। इससे ज्ञात होता है कि फर्म को केवल परिवर्तनशील लागत प्राप्त हो रही है तथा उसे स्थिर लागत की हानि हो रही है। यह हानि AB या OK (TFC = TC-TVC) के बराबर है। स्थिर लागत AB (OK) की हानि न्यूनतम होती है जो फर्म को उस समय भी उठानी पड़ेगी जब वह अल्पकाल के लिये अपना उत्पादन बंद कर देती है।

Figure-3

AB = OK = न्यूनतम हानि । यहाँ न्यूनतम हानि कुल स्थिर लागत (TFC) के बराबर है।

उत्पादक के अल्पकालीन संतुलन की सीमांत आगम (MR) तथा सीमांत लागत (MC)  विधि की व्याख्या कीजिए(Marginal Revenue and Marginal Cost Approach) 

फर्म के संतुलन की स्थिति को ज्ञात करने का दूसरा और अधिक प्रचलित तरीका सीमांत आगम तथा सीमांत लागत विधि है ।

Marginal Revenue:-किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई का उत्पादन करने से कुल लागत में जो अंतर आता है उसे सीमांत लागत (Marginal Cost) कहते हैं ।

Marginal Revenue:-इसी प्रकार “किसी वस्तु की एक अधिक इकाई की बिक्री करने से कुल आगम में जो अंतर आता है उसे सीमांत आगम (Marginal Revenue) कहा जाता है।”

एक फर्म अधिकतम लाभ की स्थिति का ज्ञान प्राप्त करने के लिये सीमांत आगम तथा सीमांत लागत की ” तुलना करती जाती है।

(1) यदि सीमांत आगम (MR) सीमांत लागत से (MC) अधिक है (MR > MC) तथा सीमांत लागत बढ़ रही है तो MC फर्म अपने उत्पादन में वृद्धि करेगी ( If MR is greater than MC (MR > MC) and MC is rising, the firm will increase its output) :-

एक फर्म तब तक उत्पादन करती जायेगी जब तक सीमांत आगम (MR) सीमांत लागत (MC) से अधिक होता है | ( MR MC)। इसका कारण यह है कि इस स्थिति में उत्पादन की प्रत्येक इकाई की बिक्री से प्राप्त आय प्रति इकाई उत्पादन लागत से अधिक होती है। इसलिये उत्पादन की प्रत्येक अतिरिक्त इकाई के कारण लाभ में वृद्धि होगी।

(2) सीमांत लागत बढ़ते रहने पर यदि सीमांत आगम (MR) सीमांत लागत (MC) से कम है (MR< MC) तो फर्म अपने उत्पादन में कमी करेगी ( If MR is smaller than MC (MR < MC) and MC is rising, the firm will decrease its Output):-

एक फर्म तब उत्पादन करना कम कर देगी जब प्रति इकाई सीमांत आगम (MR) सीमांत लागत (MC) से कम (MR< MC) होता है। इसका कारण यह है कि इस स्थिति में फर्म उत्पादन की प्रति इकाई की बिक्री से जितनी आय प्राप्त करेगी उससे अधिक लागत खर्च करेगी। इसलिए उत्पादन की प्रति अतिरिक्त इकाई के कारण हानि होगी

 (3) यदि सीमांत आगम, सीमांत लागत के बराबर है (MR = MC) तथा सीमांत लागत बढ़ रही है तो फर्म ने संतुलन उत्पादन की स्थिति प्राप्त कर ली है (If MR = MC and MC is rising, the firm has reached its equilibrium output):-

एक फर्म अपने लाभ को अधिकतम या हानि को न्यूनतम उस स्थिति में कर सकेगी जिसमें सीमांत आगम, सीमांत लागत के बराबर (MR = MC) होगी । इस स्थिति में फर्म संतुलन में होगी ।

एक फर्म उस समय उत्पादन में किसी प्रकार का परिवर्तन पसंद नहीं करेगी, जब सीमांत लागत, सीमांत आगम के बराबर (MC = MR) हो जायेगी। यह फर्म के संतुलन की स्थिति होगी । अतएव फर्म के संतुलन की पहली शर्त यह है कि संतुलन की स्थिति में सीमांत लागत, सीभांत आगम के बराबर (MC = MR) होनी चाहिए। यह संतुलन की आवश्यक शर्त (Necessary Condition) तो है परंतु पर्याप्त शर्त (Sufficient Condition) नहीं है। यदि फर्म की सीमांत लागत सीमांत आगम के बराबर हो परंतु फिर भी फर्म को अधिकतम लाभ नहीं मिल सकता है। इसलिये फर्म के संतुलन के लिये दूसरी शर्त भी पूरी होनी चाहिए कि सीमांत लागत वक्र सीमांत आगम वक्र को नीचे से काटे अर्थात सीमांत लागत वक्र का ढलान सीमांत आगम वक्र के ढलान से अधिक होना चाहिए। (MC curve cuts MR Curve from below i.e. the slope of MC curve must be more steeper than the slope of MR Curve.) अतएव सीमांत विश्लेषण (Marginal Analysis) के अनुसार एक फर्म संतुलन की अवस्था में तब ही होती है जब निम्नलिखित दो शर्ते पूरी हों

(1) MC = MR (आवश्यक शर्त या First Order Condition) 

(2) MC वक्र MR वक्र नीचे से काटे ( पर्याप्त शर्त या Second Order Condition)। 

अथवा

जहाँ MC = MR है वहाँ MC का ढलान धनात्मक (Positive) होना चाहिए।

संक्षेप में, लाभ के अधिकतम होने की पहली या आवश्यक शर्त (Necessary or First Order Condition) यह है कि MC = MR तथा

पर्याप्त शर्त (Sufficient or Second Order Condition) यह है कि जहाँ MC = MR है वहां MC वक्र का ढलान धनात्मक है। लाभ को अधिकतम करने के लिये इन दोनों शर्तों का पूरा होना आवश्यक और पर्याप्त है।

फर्म के संतुलन की उपरोक्त दोनों शर्तों को चित्र 4 की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है।

Figure-4

E संतुलन बिंदु है इस बिंदु पर ;-

(i) MR = MC, तथा

(ii) MC वक्र ऊपर को उठ रही है (या यह MR रेखा को नीचे से काट रही है ) ।

चित्र 4 में PP रेखा औसत आगम अर्थात् कीमत (AR) तथा सीमांत आगम (MR) को प्रकट कर रही है। इस चित्र से ज्ञात होता है कि सीमांत लागत वक्र (MC) सीमांत आगम वक्र PP को दो बिंदुओं A तथा E पर काट रही है अर्थात इन दोनों बिंदुओं पर MR = MC| बिंदु A से पता चलता है कि फर्म ON वस्तुओं का उत्पादन कर रही है। फर्म ON से OM तक जितनी अधिक वस्तुओं का उत्पादन करती जायेगी सीमांत लागत सीमांत आगम से कम होती जायेगी तथा फर्म के लाभ बढ़ते जायेंगे । अतः बिंदु ‘A’ संतुलन की अवस्था को प्रकट नहीं करेगा। इसके विपरीत बिंदु E से पता चलता है कि फर्म OM मात्रा का उत्पादन कर रही है। यदि फर्म OM से अधिक उत्पादन करेगी तो फर्म की सीमांत लागत (MC), सीमांत आगम (MR) से अधिक हो जायेगी तथा फर्म को हानि उठानी पड़ेगी। अतएव फर्म बिंदु E पर संतुलन की स्थिति में होगी । इस स्थिति में दो शर्तें भी पूरी हो रही हैं :

(1) सीमांत लागत तथा सीमांत आगम बराबर (MC = MR) हैं।

(2) सीमांत लागत वक्र बिंदु E पर सीमांत आगम वक्र को नीचे से काट रही है।

(MC curve is cutting MR curve from below at Point E.)

बिंदु E अर्थात संतुलन की स्थिति में फर्म को अधिकतम लाभ मिल रहे हैं। यदि फर्म संतुलन बिंदु E पर किये जाने वाले उत्पादन OM से कम या अधिक उत्पादन करेगी तो उसके लाभ, अधिकतम लाभ से, कम हो जायेंगे। इसलिये फर्म OM उत्पादन में किसी भी प्रकार का परिवर्तन करना नहीं चाहेगी । वह बिंदु E पर संतुलन की स्थिति में होगी । बिंदु ‘A’ पर संतुलन की केवल पहली शर्त अर्थात् MC = MR पूरी हो रही है। यदि फर्म उत्पादन की ON मात्रा से अधिक उत्पादन करेगी तो उसके लाभ बढ़ने की प्रवृत्ति पाई जायेगी । अतएव बिंदु A पर फर्म संतुलन की स्थिति में नहीं होगी। संक्षेप में, एक फर्म संतुलन की स्थिति में उस अवस्था में होती है जब फर्म उस मात्रा का उत्पादन करती है जिस पर MC = MR है और MC वक्र संतुलन बिंदु पर नीचे से ऊपर की ओर जा रही है। अन्य शब्दों में, संतुलन की उपरोक्त दोनों शर्तें पूरी हो रही हैं ।

इसको अवश्य समझिए:-

जब MR = MC तथा MC वक्र MR वक्र को नीचे से काटती है तो यह सदैव अधिकतम लाभ की स्थिति नहीं होती है। यह न्यूनतम हानि की स्थिति भी हो सकती है। संतुलन से केवल यह अभिप्राय है कि एक फर्म उस बिंदु पर उत्पादन करेगी जिस पर MR = MC तथा MC वक्र MR वक्र को नीचे से काटेगी। यदि फर्म इस बिंदु के अतिरिक्त किसी अन्य बिंदु पर उत्पादन करेगी तो लाभ कम हो जाएंगे तथा हानि बढ़ जाएगी।

4.2 अल्पकालीन संतुलन की स्थिति में लाभ की विभिन्न संभावनाएँ-MR MC विधि द्वारा-

(Different Possibilities of Profit in a State of Short Run Equilibrium) 

संतुलन की स्थिति में यह आवश्यक नहीं है कि फर्म को असामान्य लाभ अवश्य ही मिल रहे हों। इस अवस्था में तीन स्थितियाँ हो सकती हैं:-

मान लीजिए किसी उद्योग में उत्पादन के सभी साधन जिनमें उद्यमी (Entrepreneurs) भी शामिल हैं, एक समान हैं। सभी फर्मों को वे समान लागत पर उपलब्ध हैं। सभी फर्मों समान रूप से कार्यकुशल हैं। ऐसी स्थिति में सभी फर्मों की लागत वक्र एक समान होंगी। उद्योग की प्रत्येक फर्म संतुलन की अवस्था में या तो

(1) असामान्य लाभ ( Super Normal Profits)

(2) सामान्य लाभ (Normal Profits)

( 3 ) न्यूनतम हानि (Minimum Loss)

ये तीनों अवस्थाएँ उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत के स्तर पर निर्भर करती हैं। फर्म के संतुलन की इन तीनों स्थितियों को निम्नलिखित चित्रों द्वारा प्रकट किया जा सकता है

(i) असामान्य लाभ ( Super Normal Profits):-

एक फर्म संतुलन की स्थिति में तब होती है जब वह इतना उत्पादन करती है कि सीमांत आगम तथा सीमांत लागत बराबर हो जाते हैं (MR = MC) तथा सीमांत लागत वक्र सीमांत आगम वक्र को नीचे से काटती है। एक फर्म को संतुलन की स्थिति में असामान्य लाभ (Super Normal Profits) उस समय प्राप्त होते हैं जब उद्योग द्वारा निर्धारित औसत आय (AR) फर्म की औसत लागत (AC) से अधिक होती है। फर्म के संतुलन की इस स्थिति को चित्र 5 द्वारा स्पष्ट किया जा सकता हैं।

Figure-5

  • संतुलन बिंदु = E
  • संतुलन उत्पादन = OM
  • असामान्य लाभ = PEAB, इस स्थिति में, AR > AC  

चित्र 5 में OX- अक्ष पर वस्तु की मात्रा तथा OY – अक्ष पर आय और लागत प्रकट की गई है। MC सीमांत तथा AC औसत लागत वक्र है। PP औसत आगम तथा सीमांत आगम वक्र है क्योंकि पूर्ण प्रतियोगिता में (AR = MR) होता है। मान लीजिए उद्योग द्वारा OP कीमत निर्धारित की गई है। इस कीमत पर फर्म का संतुलन बिंदु E होगा जिस पर सीमांत लागत तथा सीमांत आगम बराबर है तथा सीमांत लागत वक्र सीमांत आगम वक्र को नीचे से काट रही है।

संतुलन उत्पादन = OM होगा उत्पादन के इस स्तर पर औसत आगम (AR) = EM, तथा औसत लागत (AC) = AM; चूंकि फर्म की औसत आगम ( AR = EM) औसत लागत (AC) से अधिक (AR> AC) है इसलिए फर्म को EA प्रति इकाई असामान्य लाभ प्राप्त हो रहे हैं।

फर्म के असामान्य लाभ ( Super Normal Profits) = उत्पादन की कुल मात्रा OM (BA) प्रति इकाई लाभ (EA) अर्थात EABP के बराबर होंगे।

अतएव फर्म बिंदु E पर संतुलन में होगी। वह OM मात्रा का उत्पादन करेगी तथा EABP असामान्य लाभ प्राप्त करेगी।

(ii) सामान्य लाभ (Normal Profits):-

एक फर्म संतुलन की अवस्था में सामान्य लाभ (Normal Profits) उस समय प्राप्त करेगी जब संतुलन उत्पादन की औसत लागत (AC) तथा उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत (AR) बराबर (AC = AR) हो जाते हैं। फर्म के संतुलन की इस स्थिति को चित्र 6 द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। का सामान्य लाभ एक फर्म उसकी कुल लागत का भाग होता है।

Figure:-6

  • संतुलन बिंदु = E
  • संतुलन उत्पादन = OM , इस स्थिति में, AR = AC जो सामान्य लाभ को दर्शाता है।

चित्र 6 से ज्ञात होता है कि उद्योग द्वारा निर्धारित OP कीमत पर फर्म बिंदु E पर संतुलन की स्थिति में होगी तथा उत्पादन की मात्रा OM होगी क्योंकि बिंदु E पर सीमांत लागत तथा सीमांत आगम बराबर हैं तथा सीमांत लागत वक्र सीमांत आगम वक्र को नीचे से काट रही है। अतएव फर्म को संतुलन उत्पादन OM पर केवल सामान्य लाभ (Normal Profits) प्राप्त होंगे क्योंकि उत्पादन की OM मात्रा पर AC = AR = MC = MR (EM) अर्थात लागत और कीमत बराबर है।

 लाभअलाभ या समविच्छेद बिंदु :- 

समविच्छेद बिंदु (Break-even Point) वहाँ होता है जहाँ AR= AC | यह वह स्थिति है जब उत्पाद की प्रति इकाई आगम (AR) उत्पाद की प्रति इकाई लागत (AC) के बराबर होती है। अथवा यह वह स्थिति है जिसमें कोई फर्म केवल सामान्य लाभ ही अर्जित करती है।

Figure:-7

बिंदु Q लाभ अलाभ बिंदु है। यहाँ AR = AC AR = MR और TR = TC। फर्म केवल सामान्य लाभ प्राप्त कर रही है।

(iii) न्यूनतम हानि (Minimum Loss):- 

संतुलन की अवस्था में एक फर्म न्यूनतम हानि (Minimum Loss) उस स्थिति में उठायेगी जब संतुलन उत्पादन की कीमत, औसत परिवर्तनशील  लागत (AVC) के बराबर हो (AR = AVC)। यदि अल्पकाल में उत्पादन बंद भी कर दिया जाये तो भी फर्म स्थिर लागतों (Fixed Costs) का घाटा उठाती रहेगी। स्थिर लागतों का घाटा फर्म का न्यूनतम घाटा होता है। परंतु यदि उत्पादन जारी रखने पर फर्म को औसत घटती-बढ़ती (परिवर्तनशील) लागत (Average Variable Cost) या उससे अधिक कीमत प्राप्त हो जाये तो फर्म उत्पादन जारी रखना पसंद करेगी। परंतु यदि कीमत घटती बढ़ती लागत (AVC) से भी कम हो जाये तो फर्म उत्पादन को बंद करना (Shut down) पसंद करेगी। न्यूनतम हानि की स्थिति को चित्र 8 द्वारा स्पष्ट किया गया है।

बंद करने की स्थिति (Shut-down Situation):- कुछ स्थितियां ऐसी होती हैं जिनमें एक फर्म लाभ को अधिकतम करने के निर्णय के अनुसार अल्पकाल (Temporarily) के लिए उत्पादन बंद कर देती है। ऐसी स्थिति उस समय होती है जब कीमत इतनी कम होती है कि कुल आगम (TR) उत्पादन की कुल परिवर्तनशील लागत (TVC) के बराबर भी नहीं होता। यदि फर्म अल्पकाल के लिये बिल्कुल भी उत्पादन नहीं करती तो भी उसे स्थिर लागत (FC) खर्च करनी पड़ेगी । अतएव एक फर्म जो अल्पकाल में उत्पादन करना बंद कर देती है उसे कुल स्थिर लागत की हानि उठानी पड़ती है। अतएव बंद करने का बिंदु वह बिंदु है जिस पर कीमत औसत परिवर्तनशील लागत (AVC) के बराबर होती है अर्थात फर्म को परिवर्तनशील लागत प्राप्त होती है । (Shut down point is that point at which the price is equal to average variable costs or the firm covers its variable costs.)

बंद करने (Shut-down) की स्थिति से अभिप्राय एक फर्म द्वारा अपना उत्पादन सदैव के लिए बंद करने से नहीं है। इसका अभिप्राय केवल अल्पकाल के लिए उत्पादन स्थगित करने से है जिसे लाभदायक स्थिति में दुबारा शुरू कर दिया जाता है। वास्तव अल्पकाल ( जिसमें फर्म की परिवर्तनशील लागतें अवश्य मिलनी चाहिए) नई फर्मों को उद्योग में प्रवेश करने तथा पुरानी फर्मों को उद्योग छोड़ने के लिए बहुत ही पर्याप्त समय है। 

अन्य शब्दों में, बंद करने के बिंदु (Shut down point) पर AR = AVC (फर्म के संतुलन उत्पादन पर जहाँ MR = MC या TR = TVC) इसे बंद करने का बिंदु (Shut-down Point) इसलिये कहा जाता है क्योंकि इस बिंदु पर संतुलन की स्थिति (MR = MC) उत्पादन करने से उतनी ही हानि होती है जितनी उत्पादन बंद करने (Shutting-down) से होती है। अतएव अल्पकाल में एक फर्म स्थिर लागत की हानि की स्थिति में भी उत्पादन करती रहती है क्योंकि उत्पादन बंद करने की अवस्था में भी उसे स्थिर लागत की हानि उठानी पड़ेगी । ‘बंद करने’ की स्थिति को चित्र 8 द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।

Figure-8

चित्र 8 में AC औसत लागत तथा AVC औसत घटती-बढ़ती लागत वक्र है। मान लीजिए उद्योग द्वारा OP कीमत निर्धारित की जाती है। इस कीमत पर फर्म बिंदु E पर संतुलन में होगी। क्योंकि संतुलन बिंदु E पर MC = MR तथा सीमांत लागत वक्र MC सीमांत आगम वक्र ( AR = MR) को नीचे से काट रही है।

संतुलन की स्थिति में वस्तु की कीमत OP (EN) उसकी औसत उत्पादन लागत (AN) से AE (AN – EN = AE) के बराबर कम है अन्य शब्दों में, फर्म को AE के बराबर प्रति इकाई हानि हो रही है। फर्म की कुल हानि EABP के बराबर होगी । अर्थात्

कुल हानि (Total Loss) = कुल मात्रा x प्रति इकाई हानि = ON (= EP) × AE = EABP होगी।

फर्म को संतुलन उत्पादन ON पर औसत घटती-बढ़ती लागत से अधिक कीमत (EK) प्राप्त हो रही है इसलिये फर्म को औसत लागत के केवल एक भाग की हानि उठानी पड़ रही है । यदि कीमत कम होकर OP, हो जाती है तो संतुलन उत्पादन OM होगा। फर्म को केवल औसत घटती-बढ़ती लागत ही प्राप्त होगी, उसे कुल बंधी लागत की हानि उठानी पड़ेगी। यह फर्म की न्यूनतम हानि होगी तथा फर्म OP, कीमत पर भी उत्पादन जारी रखेगी। क्योंकि OP, कीमत पर संतुलन बिंदु R होगा। इस बिंदु को ही उत्पादन बंद करने का बिंदु (Shut-down Point) कहते हैं। यदि कीमत OP, से भी कम हो जाती है तो फर्म को औसत घटती-बढ़ती लागत की भी हानि होने लगेगी। इस स्थिति में, वह थोड़ी देर के लिए उत्पादन वंद (Shut-down) करना ही पसंद करेगी। अत: अल्पकाल एक फर्म घाटे की अवस्था में उस समय तक उत्पादन जारी रखेगी जब तक उसे न्यूनतम हानि अर्थात् केवल वंधी लागतों का घाटा होगा तथा फर्म की न्यूनतम कीमत घटती-बढ़ती लागत के बराबर होगी। इससे कम कीमत पर फर्म उत्पादन को बंद (Shut-Down) कर देगी। अतएव उत्पादन बंद करने वाली कीमत (Shut down Price) वह कीमत है, जिसके नीचे कीमत जाने से फर्म, थोड़े समय के लिए उत्पादन नहीं करना पसंद करती है। (Thus shut down price is the price below which the firm chooses not to produce for time being.)

5.उत्पादक के  दीर्घकालीन संतुलन का निर्धारण (Long Run Equilibrium of the Producer):- 

दीर्घकाल समय की वह अवधि है जिसमें पूर्ति को माँग के अनुसार कम या अधिक किया जा सकता है। नई फर्में उद्योग में प्रवेश कर सकती हैं तथा पुरानी फर्मों उद्योग को छोड़ सकती हैं। उद्योग की वर्तमान फर्में आवश्यकतानुसार अपने प्लांट के आकार को छोटा या बड़ा कर सकती हैं।

दीर्घकाल में भी फर्म उसी स्थिति में ही संतुलन में होगी जिसमें दीर्घकालीन सीमांत लागत वक्र (LMC Curve), सीमांत आगम वक्र (MR) के बराबर है तथा दीर्घकालीन सीमांत लागत वक्र (LMC Curve) सीमांत आगम वक्र (MR Curve) को नीचे से काट रही है।

दीर्घकाल में साधारणतया सभी फर्मों संतुलन की स्थिति में केवल सामान्य लाभ (Normal Profits) ही प्राप्त करेंगी। यदि दीर्घकाल में फर्मों को असामान्य लाभ (Super Normal Profits) मिलेंगे तो पुरानी फर्मों अपने उत्पादन में वृद्धि करेंगी तथा नई फर्मों उद्योग में प्रवेश करेंगी। इसके फलस्वरूप वस्तु की पूर्ति बढ़ेगी तथा कीमत में कमी होगी। कीमत में कमी होने के कारण फर्मों को केवल सामान्य लाभ प्राप्त हो सकेंगे।

यदि फर्मों को हानियाँ (Losses) हो रही हैं तो कुछ फर्में उद्योग को छोड़कर चली जायेंगी । इसके फलस्वरूप पूर्ति कम होगी । पूर्ति कम होने से कीमत बढ़ेगी तथा फर्मों को सामान्य लाभ फिर प्राप्त होने लगेंगे।

अतएव दीर्घकालीन संतुलन की स्थिति में एक फर्म को केवल सामान्य लाभ (Normal Profits) प्राप्त होंगे जबकि अल्पकालीन संतुलन ( Short – Run Equilibrium) की स्थिति में एक फर्म (1) असामान्य लाभ अथवा (2) सामान्य लाभ प्राप्त कर सकती है और (3) हानि भी उठा सकती है।

दीर्घकालीन संतुलन की स्थिति में एक फर्म न्यूनतम औसत लागत पर उत्पादन करेगी। इस प्रकार दीर्घकालीन संतुलन की स्थिति में एक फर्म की केवल दीर्घकालीन सीमांत लागत (LMC) तथा सीमांत आगम ही एक-दूसरे के बराबर नहीं होंगे बल्कि वे दीर्घकालीन औसत लागत (LAC) के न्यूनतम बिंदु तथा औसत आगम (AR) या कीमत के बराबर भी होंगे। क्योंकि फर्म को केवल सामान्य लाभ (LAC = AR) ही प्राप्त होंगे। अतएव दीर्घकालीन संतुलन की स्थिति में फर्म का संतुलन उत्पादन (Equilibrium Output) वह उत्पादन होगा जिस पर :-

SMC = LMC = MR = AR = Minimum LAC = SAC 

फर्म के दीर्घकालीन संतुलन उत्पादन को इष्टतम उत्पादन (Optimum Output) कहते हैं क्योंकि उत्पादन की इस मात्रा की कीमत न्यूनतम औसत लागत के बराबर होती है तथा फर्म को केवल सामान्य लाभ ही मिलते हैं।

फर्म के दीर्घकालीन संतुलन की चित्र 9 द्वारा व्याख्या की जा सकती है। इस चित्र में LAC दीर्घकालीन औसत लागत वक्र है। यह अल्पकालीन औसत लागत वक्र (SAC) की तुलना में चपटा (Flatter) है। इसका कारण यह है कि दीर्घकालीन औसत लागत वक्र अल्पकालीन औसत लागत वक्रों को बाहर से घेर या Envelope कर लेती है। LMC दीर्घकालीन सीमांत लागत वक्र तथा SMC अल्पकालीन सीमांत लागत वक्र है।

Figure-9

E दीर्घकालीन संतुलन बिंदु है । जहाँ,

SMC = LMC = MR = AR = SAC = न्यूनतम LAC 

चित्र 9 से ज्ञात होता है कि उद्योग द्वारा निर्धारित OP कीमत पर फर्म बिंदु E पर संतुलन की अवस्था में होगी तथा संतुलन उत्पादन OM होगा। इसका कारण यह है कि बिंदु E पर सीमांत आगम, दीर्घकालीन सीमांत लागत, औसत आगम तथा दीर्घकालीन औसत लागत के बराबर है।

फर्म दीर्घकालीन संतुलन की दशा में अपने प्लांट के आकार में इस प्रकार परिवर्तन करती है कि उत्पादन न्यूनतम औसत लागत (Minimum Average Cost) पर किया जा सके। संतुलन की अवस्था में अल्पकालीन सीमांत लागत, दीर्घकालीन सीमांत लागत के बराबर होती है तथा अल्पकालीन औसत लागत दीर्घकालीन औसत लागत के बराबर होती है अर्थात

SMC = LMC = MR = AR (P) = SAC = Minimum LAC 

इसका अभिप्राय यह हुआ कि दीर्घकाल में फर्म इष्टतम उत्पादन करेगी। अतएव बिंदु E केवल संतुलन बिंदु (Point of Equilibrium) ही नहीं बल्कि इष्टतम उत्पादन बिंदु (Point of Optimum Output) भी है। इस स्थिति में फर्म को सामान्य लाभ (Normal Profit) ही प्राप्त होंगे।

उद्योग में प्रवेश करने तथा बाहर निकलने की स्वतंत्रता सभी फर्मों के संतुलन की स्थिति को सामान्य लाभ की प्राप्ति तक ही सीमित कर देती है 

6.फर्मों का प्रवेश और बाहर जाना तथा इसका प्रभाव:-(Entry and Exit of Firms and its Effect) 

दीर्घकाल में, अधिकतम लाभ कमाने वाली सभी फर्मों वस्तु / उत्पाद का उत्पादन उस स्तर पर करेगी जिस पर कीमत दीर्घकालीन सीमांत लागत (LMC) के बराबर है और औसत लागत न्यूनतम है ।

(1) प्रवेशऊँची कीमत का आकर्षण (Entry Attraction to Higher Price ) :-

अल्पकाल में असामान्य लाभ हो सकते हैं, ऐसी स्थिति में SAC वक्र कीमत रेखा से नीचे होती है, परंतु दीर्घकाल में असामान्य लाभ को बनाए नहीं रखा जा सकता। इस स्थिति को चित्र 10 की सहायता से स्पष्ट किया गया है।

Figure-10

चित्र 10 (A) में, उद्योग में अन्य फर्मों की भांति, फर्म को अति – सामान्य या असामान्य लाभ अर्जित करते हुए दिखलाया गया है। इन लाभों को छाया वाले भाग (Po ABP 1 ) द्वारा प्रकट किया गया है। परंतु ऐसे लाभ दीर्घकाल में प्राप्त नहीं हो सकते या दीर्घकाल में बने नहीं रहते। दी हुई कीमत (OP) पर उद्योग का उत्पादन तथा फर्म का उत्पादन क्रमश: No और Xo है। यह अन्य उद्योग में काम करने वाली फर्मों को अपनी ओर आकर्षित करेगा। इसके फलस्वरूप उद्योग का पूर्ति वक्र दाईं ओर सरक कर S’S’ हो जाएगा। अब उद्योग की नई या बाजार निर्धारित कीमत OP, है जो OP) से कम है। OP1 कीमत पर फर्म का उत्पादन घट कर X हो जाता है और प्रत्येक फर्म SAC के न्यूनतम बिंदु पर कार्य कर रही है। इसलिए SAC>SMC. यहाँ महत्त्वपूर्ण यह है कि उद्योग में नई फर्मों के प्रवेश की प्रक्रिया तब तक जारी रहेगी जब तक कीमत घट कर OP, नहीं हो जाती और अतिरिक्त सामान्य लाभ या असामान्य लाभ समाप्त नहीं हो जाते। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह भी है कि बेशक प्रत्येक फर्म अब पहले से कम उत्पादन (Xo की बजाए (X) कर रही है उद्योग की कुल पूर्ति No से बढ़ कर N1 हो गई है। इसका कारण है नई फर्मों का उद्योग में प्रवेश करना ।

(2) छोड़नाकम कीमत द्वारा बाधित (Exit – Induced by Lower Price ):-

मान लीजिए 200 फर्मों वाले उद्योग में हैं, सभी फर्म उस कीमत पर कार्य कर रही हैं जो SAC से कम है परंतु SVC (अल्पकालीन औसत घटती-बढ़ती लागत) से अधिक है, इसलिए फर्में हानि उठाती हुई कार्य कर रही हैं, परंतु फिर भी कीमत से वे घटती-बढ़ती लागत (VC) निकाल रही हैं। इसलिए यह कीमत उत्पादन – बंद वाले स्तर (Shut down Level) से ऊपर है और निवेश पर प्राप्त होने वाला प्रतिफल अवसर लागत से है।

अल्पकाल में होने वाली हानि फर्मों को बाध्य करती है कि दीर्घकाल में वे उद्योग को छोड़ कर बाहर चली जाएं। इस स्थिति को चित्र 11 द्वारा स्पष्ट किया गया है।

Figure-11

चित्र 11 (A) से स्पष्ट होता है कि प्रत्येक फर्म हानि उठाती हुई कार्य कर रही हैं, यह हानि छाया वाला भाग (PoABP2) प्रकट कर रहा है। अल्पकाल में तो फर्म न्यूनतम हानि सहन कर सकती है, परंतु दीर्घकाल में कोई भी फर्म, हानि की स्थिति में, अपने उत्पादन को जारी नहीं रखेगी। कुछ सीमांत फर्में उद्योग को छोड़ देंगी । इसके फलस्वरूप उद्योग का पूर्ति वक्र बाईं ओर सरक जाएगा (SS से SS) | नई बाजार कीमत OP, होगी और नई पूर्ति ON होगी। कीमत का OP。 से बढ़कर OP, होने से फर्में फिर सामान्य लाभ अर्जित करने की स्थिति में हो जाएँगी। अब प्रत्येक फर्म कीमत वृद्धि के अनुरूप अपने उत्पादन को बढ़ाएगी। अब बेशक प्रत्येक फर्म के उत्पादन में वृद्धि हुई है परंतु उद्योग का उत्पादन / पूर्ति कम हो गया है। इसका कारण यह है कि उद्योग में अब फर्मों की संख्या कम हो गई है।

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